भूख थे वहाँ कतार में खड़े वो ,और पेट उनके, आग में पक रहे थे चेहरे, पहले लार लार हुए ,फिर सूख कर लटक गए, इंतज़ार में जीभ पपड़ीदार हुयी, फिर आस में भोजन के, मगर शर्म नही आयी उसे, वो भीतर अपने आसन पे विराजमान, मजे से चढ़ावे खाता रहा।
पतझर में जो पत्ते बिछड़ जाते हैं अपने आशियाने से, वे पत्ते जाने कहाँ चले जाते हैं? उन सूखे पत्तों की रूहें उसी आशियाने की दीवारों पे, सीलन की तरह बहती रहती है! किसी भी मौसम में ये दीवारें सूखती नही! ये नम बनी रहती है मौसम रिश्तों की रूहों को सूखा नही सकते....
शहर की इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है? जब यही जीना है दोस्तों, तो मरना क्या है? पहली बारिश में ट्रेन लेट होने की फ़िक्र है... भूल गए भीगते हुए टहलना क्या है? अब रेत पर नगें पाव टहलते क्यूँ नही? १०८ है चैनल पर फिर भी दिल बहलता क्यूँ नही? नाटक के किरदारों का सारा हाल है मालूम पर माँ का हाल पूछने की फुर्सत कहा है? शहर की इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है? जब यही जीना है दोस्तों, तो मरना क्या है?
ज़माने से सुना था की मोहब्बत हार जाती है जो चाहत हो एक तरफा वो हार जाती है कहीं दुआ का एक लफ्ज़ असर कर जाता है और कहीं बरसो की इबादत भी हार जाती है हमें कितने भी शिकवें हो उसकी जफाओ से उसके सामने हर शिकायत हार जाती है एक आरजू है उसको भूल जाने की पर उसकी याद आते ही ये हसरत हार जाती है